मंगलवार, 18 सितंबर 2012

रात भर चाँद को यूँ रिझाते रहे
उनके हाथों का कंगन घुमाते रहे
एक विरह की अगन में सुलगते बदन
करवटों में ही मल्हार गाते रहे
टीस, आवारगी, रतजगे, बेबसी
नाम कर मेरे वो मुस्कुराते रहे
शेर जुड़ते गए, एक गजल बन गयी
काफिया काफिया वो लुभाते रहे
टोफियाँ, कुल्फियां, काफ़ी के जायके
बारहा तुम हमे याद आते रहे
मैं पिघलता रहा मोम सा उम्र भर
एक सिरे से मुझे वो जलाते रहे
जब से यादें तेरी रोशनाई बनी
शेर सारे मेरे जगमगाते रहे
                      - गौतम राजरिथी 

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