मंगलवार, 18 सितंबर 2012

धूप लुटा कर सूरज जब कंगाल हुआ
चाँद उगा फिर से अम्बर मालामाल हुआ
सांझ लुढक कर ड्योडी पर आ फिसली है
आँगन से चौबारे तक सब लाल हुआ
जिक्र छिड़ा हैं जब भी उनका यारों में
खुशबू ख़ुशबू सारा ही चोपाल हुआ
उम्र वहीँ ठिठकी है जब तुम छोड़ गए
लम्हा दिन सप्ताह महीना साल हुआ
धूप  अटक कर बैठ गयी हैं छज्जे पर
ओसारे का उठना आज मुहाल हुआ
चुन चुन कर वो देता था हर दर्द मुझे
चोट लगी जब खुद को तो बेहाल हुआ
कल तक जो देता था उत्तर प्रश्नों का
आज वही उलझा सा सवाल हुआ
छुटपन में जिसकी संगत थी चैन मेरा
उम्र बढी तो वो जी का जंजाल हुआ
                                  गौतम राजरिशी 
रात भर चाँद को यूँ रिझाते रहे
उनके हाथों का कंगन घुमाते रहे
एक विरह की अगन में सुलगते बदन
करवटों में ही मल्हार गाते रहे
टीस, आवारगी, रतजगे, बेबसी
नाम कर मेरे वो मुस्कुराते रहे
शेर जुड़ते गए, एक गजल बन गयी
काफिया काफिया वो लुभाते रहे
टोफियाँ, कुल्फियां, काफ़ी के जायके
बारहा तुम हमे याद आते रहे
मैं पिघलता रहा मोम सा उम्र भर
एक सिरे से मुझे वो जलाते रहे
जब से यादें तेरी रोशनाई बनी
शेर सारे मेरे जगमगाते रहे
                      - गौतम राजरिथी 

सोमवार, 10 सितंबर 2012

यायावर

भीड़ भरी इस दुनिया में हम इक  चेहरा पहचान गए !
उसकी आँखों की उम्मीदों को हम पल में  गए !!
 लिए हथेली पर सूरज को वो परदेसी निकला था !
उजियारे  के दुश्मन  सारे  शस्त्र उसी पे तान गए !!
दरवाजे पर उसने दस्तक दी तब हम भी चौंके थे !
उसकी कुछ कहने की जिद्द पर हम भी कहना मान गए !
घर से निकला था दुनिया को कुछ   दस्तूर बताने को !
दुनिया के दोहरेपन से ही उसके सब अरमान गए !!
कुछ आंसू  , कुछ उम्मीदें , कुछ सपने अपने छोड़ गया !
उस यायावर की खातिर , हम सारी दुनिया छान गए गए !!

रविवार, 9 सितंबर 2012

आँगन वाला नीम

आरी ने घायल किये , हरियाली के पाँव !
कंक्रीट में दब गया , होरी वाला गाँव !!
                          दूर शहर की चिमनियाँ देती आभास !
                          जैसे बीडी पी रहे, बूढ़े कई उदास !!



वन्य जीव मिटते रहे, कटे पेड़ दिन रात !
तो एक दिन मिट जाएगी , खुद आदम की जात !!
                          अब धरती आकाश पर खाओ रहम हुजूर!
                          बदल रहे हैं रात- दिन , मौसम के दस्तूर !!
सूखा , बाढ़ , आकाल नित्य कर रहे वार !
आखिर धरती कब तक सहे अत्याचार !!
                          धुंध , धुएं ने दिया , हरियाली को मेट !
                          चिड़िया फिरती न्याय को , लिए वेडियो टेप !!
प्रदुषण के घात दी , रोगी हुए हकीम !
असमय बुढा हो गया , आँगन वाला नीम !!

                         
 आरी मत पैनी करो , जंगल करे गुहार !
जीवन भर दूंगा तुम्हे , मैं अनगिनत उपहार !!
                                                 

शनिवार, 8 सितंबर 2012

रेत के गाँव में नदी जैसे ,
मिल गए आप जिंदगी जैसे !
छु गई इस तरह हरी आँखे ,
                   हम हुए सावनी सदी जैसे !
पार र्द्शी गुलाब सी काया ,
                  झील में धूप की हंसी हँसी जैसे !
एक रिश्ता कहीं उगा भीतर ,
                   चाँद के साथ चांदनी जैसे !
आपकी याद हवा ले आई ,
                    हो गयी शाम शायरी जैसे !
                                       - डॉ हरीश निगम 

The Rain

ज ल ती  ध र ती की तपिश से अम्बर को भी जलन होती है
इसलिए तो बारिश की बुँदे धरा को भिगोती है 
मृत हुए जीवों को जैसे जीवंदान मिला
सूखी हुई फसलों को एक नया प्राण मिला
उदास हुए मन में उमंग नई पिरोती है
इसलिए बारिश की बुँदे धरा को भिगोती है
अपने स्वार्थ की खातिर पेड़ो को काट दिया
प्र कृ  ति  की सुन्दरता का जिस मानव ने नाश
किया
उसी मनुष्य की आँखे जब भी  भूख से रोती है
बारिश की बुँदे  धरा को भिगोती है